I kneel before Your greatness O Lord, simply in love and adoration for You! I beg for beg your good grace and mercy on me, O Vishnu. I plead with Thee Shri Krishna, as a friend to his friend or as a lover would to his beloved!
अतएव हे प्रभो ! मैं शरीर को भली भांति चरणों में निवेदित कर प्रणाम करके स्तुति करने योग्य आप ईश्वर को प्रसन्न होने के लिये प्रार्थना करता हूँ, हे देव ! पिता जैसे पुत्र के, सखा जैसे सखा के और पति जैसे प्रियतमा पत्त्नी के अपराध सहन करते हैं —- वैसे ही आप भी मेरे अपराध को सहन करने योग्य हैं ।। ४४ ।।
अध्याय – 12 – श्लोक -13-14
The Lord describes the divine qualities of a devotee:
He who hates no one, who is friendly and compassionate to all, who is free of egoism, balanced in pain and pleasure and forgiving.
He who is ever content, ever steady in meditation, self-controlled and firmly committed with mind and intellect fixed on Me, that devotee is dear to Me.
जो पुरुष सब भूतों द्बेष-भाव से रहित, स्वार्थ रहित सबका प्रेमी और हेतुरहित दयालु हैं तथा ममता से रहित, अहंकार से रहित सुख-दुःख़ों की प्राप्ति में सम और क्षमावान् हैं अर्थात् अपराध करने वाले को भी अभय देने वाला हैं ; तथा जो योगी निरन्तर संतुष्ट है मन-इन्द्रियों सहित शरीर को वश में किये हुए है और मुझ में दृढ़ निश्चय वाला हैं —- वह मुझ में अर्पण किये हुए मन-बुद्भि वाला भक्त्त मुझको प्रिय हैं ।। १३ – १४ ।।
अध्याय – 16 – श्लोक -1
All of the significant qualities in all beings such as: freedom from fear, purity of mind and heart, stability in knowledge and concentration, generosity in charity, self-control, sacrifice, constant study of the holy Scriptures, piousness and straightforwardness.
श्रीभगवान् बोले —–भय का सर्वथा अभाव, अन्त:करण की पूर्ण निर्मलता, तत्व ज्ञान के लिये ध्यान योग में निरन्तर दृढ. स्थिति और सात्विक दान, इन्द्रियों का दमन, भगवान्, देवता और गुरुजनों की पूजा तथा अग्निहोत्र आदि उत्तम कर्मों का आचरण एवं वेद शास्त्रों का पठन-पाठन तथा भगवान् के नाम और गुणों का कीर्तन, स्वधर्म पालन के लिये कष्ट सहन और शरीर तथा इन्द्रियों के सहित अन्त:करण की सरलता ।। १ ।।
अध्याय – 16 – श्लोक -2
Non-violence, truth, freedom from anger, detachment from all things, peacefulness (with mind and self), restraint from finding faults with others, compassion towards all living beings, detachment from greedy craving, gentleness, modesty, and stability of the mind and emotions.
मन, वाणी और शरीर किसी प्रकार भी किसी को कष्ट न देना, यथार्थ और प्रिय भाषण, अपना अपकार करने वाले पर भी क्रोध का न होना, कर्मों में कर्तापन के अभिमान का त्याग, अन्त:करण की उपरति अर्थात् चित्त की चञ्चलता का अभाव, किसी की भी निन्दादि न करना, सब भूत प्राणियों में हेतुरहित दमा, इन्द्रियों का विषयों के साथ संयोग होने पर भी उनमें आसक्ति का न होना कोमलता, लोक और शास्त्र से विरुद्भ आचरण में लज्जा और व्यर्थ चेष्टाओं का अभाव ।। २ ।।
अध्याय – 16 – श्लोक -3
Vigour, an attitude of forgiveness towards others, courage, purity, goodwill, towards others, and freedom from pride. All of these, dear Arjuna, are considered by Me to be the great characteristics of a man who possesses a divine nature and has come into this world from heaven.
तेज, क्षमा, धैर्य, बाहर की शुद्भि एवं किसी में भी शत्रु भाव का न होना और अपने में पूज्यता के अभिमान का अभाव —–ये सब तो हे अर्जुन ! दैवी सम्पदा को लेकर उत्पन्न हुए पुरुष के लक्षण हैं ।। ३ ।।