वास्तुशास्त्र

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अध्याय – 11 – श्लोक -33

Therefore, arise O son of Kunti (Arjuna), win thy glory, conquer your enemies, enjoy a prosperous kingdom! Through the result of their own Karma, I have doomed these people to die and you, My Dear disciple, are simply a means of Mine by which this task shall be accomplished.

अतएव तू उठ ! यश प्राप्त कर और शत्रुओं को जीत कर धन-धान्य सम्पन्न राज्य को भोग । ये सब शूर वीर पहले ही से मेरे द्वारा मारे हुए हैं  । हे सव्यसाचिन् ! तू तो केवल निमित्त मात्र बन जा ।। ३३ ।।

अध्याय – 18 – श्लोक -48

A man should never foresake his own tasks, even if he cannot complete them in full perfection, simply because it is a known fact that every (human) endeavour consists of some fault or imperfection just as all fire consists of smoke.

अतएव हे कुन्ती पुत्र ! दोष युक्त्त होने पर भी सहज कर्म को नहीं त्यागना चाहिये ; क्योंकि धुऍ से अग्नि की भाँति सभी कर्म किसी न किसी दोष से युक्त्त हैं ।। ४८ ।।

अध्याय – 18 – श्लोक -78

Wherever there is the Divine Lord Krishna, the Master of all Yoga, and the able disciple Arjuna, there is beauty, morality, extraordinary power, and victory over all evil. O King Dhrtarastra, this is my unshakeable belief and faith.

हे राजन् ! जहां योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण हैं और जहाँ गाण्डीव धनुषधारी अर्जुन हैं, वहीं पर श्री, विजय, विभूति और अचल नीति है —-ऐसा मेरा मत है ।। ७८ ।।

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