Dear Arjuna, one should lift himself through his own efforts. He success or failure in performing his Karma should be the result of his own doing. Should a man fail, he should not degrade himself, O Arjuna, for he is his own true friend as well as his own true enemy.
अपने द्वारा अपना संसार समुद्र से उद्बार करे और अपने को अधोगति में न डाले ; क्योंकि यह मनुष्य आप ही तो अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है ।। ५ ।।
अध्याय – 6 – श्लोक -6
The true self (soul) is only its own friend if it is free from attachment and in control of its own mind, body and senses. However, dear Arjuna, if one’s soul is not in control of mind body and senses, then the soul is its own enemy.
जिस जीवात्मा द्वारा मन और इन्द्रियों सहित शरीर जीता हुआ है, उस जीवात्मा का तो वह आप ही मित्र है, और जिसके द्वारा मन तथा इन्द्रियों सहित शरीर नहीं जीता गया है, उसके लिये वह आप ही शत्रु के सदृश शत्रुता में बर्तता है ।। ६ ।।
अध्याय – 6 – श्लोक -26
The unsteady, wandering and constantly distracted mind should always be controlled and fixed in God.
यह स्थिर न रहने वाला और चञ्चल मन जिस-जिस शब्दादि विषय के निमित्त से संसार में विचरता है, उस-उस विषय से रोक कर यानी हटा कर इसे बार-बार परमात्मा में ही विषय से निरुद्भ करे ।। २६ ।।
अध्याय – 6 – श्लोक -35
Lord Krishna divinely replied:
Dear Arjuna, undoubtedly, the mind, as you say, is difficult to control, yet with paractice, determination and detachment, it can be controlled.
श्रीभगवान् बोले —- हे महाबाहो ! नि:संदेह मन चञ्चल और कठिनता से वश में करने वाला है ; हे कुन्ती पुत्र अर्जुन ! यह अभ्यास और वैराग्य से वश में होता है ।। ३५ ।।